expr:dir='data:blog.languageDirection' xmlns='http://www.w3.org/1999/xhtml' xmlns:b='http://www.google.com/2005/gml/b' xmlns:data='http://www.google.com/2005/gml/data' सतनामी इतिहास

Monday, December 30, 2019

                    कोटमां के सतनामी





 इस शाखा के सतनामीयों का जन्मदाता स्वामी जगजीवनदास थे। इनका जन्म 1682 ई. में उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में सरहदा नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री गंगा सिंह ठाकुर था।वे क्षत्रिय थे|  जगजीवन दास बचपन से ही संत प्रकृति का था तो उसका मन हमेशा सत्संग की ओर लगा रहता था। पढ़ने लिखने में बहुत तेज था | शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने बावरी पंथ में भोला साहेब( बुल्ला) और गोविंदा साहेब से दीक्षा ली। इससे उनकी जीवन धारा ही बदल गई। संत भोला साहेब के अनुसार वे जगजीवन के जीवन धारा को बदलने के लिए ही आए थे, क्योंकि पूर्व जन्म में स्वामी जी एक तपस्वी थे। उन्होंने जगजीवनदास को अपने पूर्व जन्म के अनुसार ही योगी होने की भविष्यवाणी की थी। कहां जाता है कि जब जगजीवन स्वामी ने उसकी भविष्यवाणी की निशानी मांगी तब भोला साहेब ने नीला तथा गोविंद साहब ने सफेद धागा निकाल कर एक दूसरे से मिलाकर जगजीवन दास जी के दाहिने हाथ की कलाई पर बांध दिया। उत्तर प्रदेश के  कोटमां शाखा के सतनामी जो जगजीवन दास जी के द्वारा दिक्षित है, आज भी अपने दाहिने हाथ की कलाई पर नीला और सफेद धागा बांधते हैं। इसे “अगदु” कहा जाता है। श्री अभिलाष दास( एक कबीर साहू) के अनुसार- कुछ लोग जगजीवनदास को काशी के एक विश्वेश्वपूरी नामक संत का शिष्य मानते हैं। धीरे-धीरे जगजीवन दास जी की कीर्ति फैलने लगी और दूर-दूर से लोग आकर उनके अनुयाई बनने लगे कुछ समय बाद स्वामी जी अपना घर छोड़कर गंगा पर बना कोटमां घाट में आकर रहने लगे। श्रद्धालु जन भी वहां जाकर बस गए।
       
                                           एक घटना के अनुसार जगजीवन स्वामी ने अपनी पुत्री का विवाह राजा गोंडा के पुत्र के साथ किया था। विवाह में राजा द्वारा  समीष भोजन करने से इनकार करने पर भट्टे का एक पौधा लगा दिया- जिसे लोगों ने मांस के स्थान पर ग्रहण किया। इस चमत्कार के आधार पर उनके अनुयाई यह विश्वास करते हैं कि निमिष भोजन को समीप में बदला जा सकता है। J.E.O.W brigks एवं सरकारी गैजेटियररो के अनुसार जगजीवन स्वामी की मृत्यु सन1761 ई .में हो गई। 

स्वामी जगजीवन दास जी सतनाम को ईश्वर के समान मानते थे। उनके अनुसार देव हि कार्य और कारण है। उन्होंने वेदों के देव कल्पना के अनुरूप ही देव कल्पना की थी। उनके अनुयाई मांस, मसूर की दाल, बैगन, शराब का सेवन वर्जित करते हैं। यह मूर्ति पूजा नहीं करते लेकिन हनुमान की पूजा करते हैं। यह अवतारवाद पर विश्वास करते एवं राम -कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानते हैं। यह लोग हिंदू रीति रिवाज को मानते एवं उनके त्योहार आदि को मनाते हैं। जगजीवन स्वामी अपने अनुयायियों को निम्न उपदेश दिया है 

(1) मानव मानव एक है।
(2) कभी दूसरों पर निर्भर ना रहे।
(3) गुरुओं को सर्वोच्च आदर दे |
(4) गुरु के वचनों का पालन करें।
   
 दूसरों के प्रति आदर,  सहिष्णुता, दान, दया एवं जीवो के प्रति प्रेम आदि की मान्यता भी जगजीवन स्वामी के उपदेशों में है। कहा जाता है कि उनके एक प्रथा भी प्रचलित थी जिसे गायत्री प्रथा भी कहा जाता  था | जगजीवन स्वामी एक गृहस्थ साधक थे। निम्न जाति के अधिकांश लोग भी इनके महंत बन गए। 

श्री जगजीवन स्वामी ने हिंदी भाषा में अपनी रचनाएं लिखी है इ|नकी रचनाएं हैं-
(1) अथ निवास
(2) ज्ञान प्रकाश 
(3) महाप्रलय।
                           
         स्वामी जी के शिष्यों में  ईतन साहेब का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है बाराबंकी, फैजाबाद, बहराइच जिलों में इस शाखा का अच्छा प्रचार प्रसार हुआ था इस शाखा में जगजीवन के गद्दी का भी प्रचार है। जगजीवन स्वामी की मृत्यु सन 1761 इ.में कोहवा ग्राम में हुई। वहां उनका समाधि स्थल भी बना है। वह प्रतिवर्ष वैशाख एवं कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है।

  इस जानकारी पर मुझे इतना अवश्य कहना है कि -

(1)स्वामी जगजीवनदास क्षत्रिय थे फिर भी उनका शाखा का वर्णन J.E.O.W brigks  ने “दी चमार” मे क्यों कि ? अवश्य ही उन्हें किसी भारतीय ने गलत जानकारी दी होगी। वे एक विदेशी थे। उन्हें भारतीय जातियों का ज्ञान नहीं था। उन्हें भारत के किसी कट्टरवादी सांप्रदायिक व्यक्ति के कुप्रभाव में आकर उसके बताए अनुसार लिखनी चला दी
(2) जगजीवन स्वामी के  सतनाम में अधिकांश निम्न जाति के लोग ही दीक्षित हुए ऐसा क्यों ? यह खोज का विषय है।
(3) जगजीवन दास छत्रिय थे ,फिर उनके शिष्य सतनामी कैसे ? यह रहस्यमय प्रश्न है,जिनका उत्तर खोजा जाना चाहिए।  

                                                                                                                                                                                इससे सिद्ध होता है कि  स्वामी जी के सतनाम में विभिन्न जातियों के लोग शामिल हुए। उनके  सतनाम में शामिल होने वाले केवल सतनामी कहलाए | इस प्रकार में मानव विभाजन को आवश्यक समझकर उन्हें एकमात्र सतनामी बनाना चाहा| स्वामी जी ने सतनाम को ही मानव मात्र  का एकमात्र धर्म माना था, और वे इसी के माध्यम से मानव एकता स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने एकत्रित मानव समूह को सतनामी कहा था | 
                        

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