इतिहास के पन्नों में सतनामी
नारनौल के सतनामी - एक शोध के अनुसार सन 1543 मे वीरभान नामक एक संत ने नारनौल तथा उसके आसपास ( मेवात तथा हरियाणा ) मे सतनाम पंथ का प्रचार एवं प्रसार किया था। उन्होंने सतपोथी नामक एक ग्रंथ भी लिखा था। इनके इस पंथ में दीक्षित सतनामी मुंडिया कहलाते थे। वे श्वेत वस्त्रधारी, सतनाम के उपासक, शांति प्रिय , अहिंसक, सत्यवादी, स्वाभिमानी साधु थे। उनका नारा सतनाम था। इनका श्वेत ध्वजा था । उनके सादगी, उच्च विचार एवं रहन सहन को देखते हुए कतिपय इतिहासकारों ने ब्राह्मण, साधु आदि नामों से संबोधित किए हैं। और कुछ लेखक सूदास के वंशज नहीं मानते हैं। उनका मत है कि सूदास के वंशज मेवात के सतनामी कहलाते थे। कुछ लोग नारनौल के सतनामीयों का संस्थापक योगीदास को मानते हैं।
इतिहास में नारनौल में सतनामी शब्द मुगल कालीन भारत के क्षितिज पर औरंगजेब के विरुद्ध “सतनामी विद्रोह”के रूप में लिखा मिलता है। सन 1672 ई. में औरंगजेब के विरुद्ध जाटों, तथा सतनामीयों का भयंकर विद्रोह हुआ था। इतिहास में लिखा है कि सतनामी तांत्रिक थे वे युद्ध में अपनी इस तंत्र विद्या का प्रयोग करते थे, जिसके प्रभाव से युद्ध में उनके शरीर पर तलवार, भाले, तीर आदि का कोई असर नहीं होता था। यहां तक कि तोप के गोले भी उन्हें घायल नहीं कर सकते थे। इस अफवाह से शाही फौज घबराकर युद्ध से पहले ही भयभीत हो जाती थी। आमने-सामने होते ही शाही सिपाही घबराकर डर जाते और बड़े आसानी से परास्त तो हो जाते थे । सन 1672 ई. में औरंगजेब के साथ इस शाखा के सतनामीयों का भयंकर युद्ध हुआ था । इसमें औरंगजेब की सेना का 3 बार हार हुई थी। जब औरंगजेब को अपनी सेना की हार का पता चला, तो उन्होंने अपनी सेना के मनोबल को बढ़ाने एवं उनके भय को दूर करने के लिए तथा कौमी कट्टरता को कायम करने हेतु अपने प्रत्येक सिपाही के झंडे में कुरान कलाम व फातिहा लिखा । इतना ही नहीं वह स्वयं युद्ध का संचालन किया। इस भयावह युद्ध में सतनामी यों की हार हुई। कहा जाता है कि इस युद्ध में 20000 में मारे गए। इतिहास में लिखा हुआ है कि तीन बार के युद्ध में परास्त होने के बाद औरंगजेब को इतनी बौखलाहट थी की चौथी युद्ध को जीतते हि सतनामीयों के विरुद्ध कत्लेआम का आदेश जारी कर दिया । इतिहास साक्षी है कि कत्लेआम के आदेश के बाद रात्रि का लाभ उठाकर सतनामी जन उस क्षेत्र से पलायन कर गए और उस क्षेत्र में एक भी सतनामी नहीं बचा । इतिहास की विडंबना यह है कि यह सतनामी पलायन करने के बाद कहां गए इसका वर्णन भी नहीं किया गया।
इस घटना के संबंध में इतिहासकारों के निम्न मत है -
ओम प्रकाश केला और प्रभाकर ठाकुर लिखते हैं कि- भारत वर्ष के सरल इतिहास पेज नंबर 534 में वर्णन किया है- “सतनामीयों का विद्रोह” - सतनाम से सतनामी शब्द बना है। इस संप्रदाय के लोग दिल्ली से दक्षिण पश्चिमी लगभग 75 मील की दूरी पर नारनौल एवं उसके आसपास रहते थे। एक मुगल सिपाही ने एक सतनामी को साधारण बात पर मार डाला। सतनामी पहले ही आक्रोशित थे। इस घटना को लेकर सतनामीयों ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध में विद्रोह कर दिया। पास पड़ोस के जमीदार भी सतनामी यों से आ मिले। उन्होंने नारनौल के मुगल फौजदार को मार डाला। स्थिति भयानक हो गई। औरंगजेब ने स्वयं इस विद्रोह को शांत करने का भार अपने ऊपर लिया। सन 1672 ई.मे भीषण युद्ध के बाद सतनामी यों की पराजय हुई। औरंगजेब की कड़ाई से वे उस प्रदेश को छोड़कर चले गए और उस क्षेत्र में एक भी सतनामी नहीं रहा।
(2)आर. एल. शर्मा के मुगल कालीन भारत पेज नंबर 188 के अनुसार “सतनामी यों का विद्रोह- दिल्ली से 75 मील दूर दक्षिण पश्चिम में नारनौल नामक स्थान पर सतनाम के कुछ साधु उपासक रहते थे। यह खेती-बाड़ी का कार्य किया करते थे। एक मुगल पहरेदार ने 1 सतनामी को घायल कर दिया, इसलिए सतनामीयों ने उस पहरेदार को मार डाला। नारनौल के मुगल फौजदार ने अन्याय पूर्वक उस मुगल पहरेदार का पक्ष लेकर सतनामीयों पर अत्याचार करना चाहा। बात बढ़ गई। सतनामीयों ने मुगल फौजदार पर आक्रमण करके उसका भी वध कर डाला और नारनौल के हुकूमत पर कब्जा करके भारत में मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, किंतु औरंगजेब ने विविध साधनों से इस विद्रोह का अंत कर दिया।”
(3)डॉ.आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव- “भारतवर्ष का इतिहास पेज नंबर 638 में सतनामी विद्रोह के संबंध में लिखते हैं कि औरंगजेब के शासनकाल का दूसरा भीषण विद्रोह नारनौल तथा मेवात के जिलों में सतनामी यों का विद्रोह था। सतनामी शांतिप्रिय धार्मिक लोग थे, जो एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे तथा खेती बाड़ी किया करते थे। वे अपने सिर, चेहरा, भंव तक के बाल मुंडवाते थे, इसीलिए उन्हें मुंडिया कहते थे। एक सतनामी किसान और लगान वसूल करने वाले एक स्थानीय मुगल अधिकारी के बीच व्यक्तिगत झगड़े के कारण एक मुगल सैनिक के अनुचित व्यवहार से क्रोधित सतनामीयों ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने मुगल सेना पर अनेकों विजय प्राप्त किया एवं नारनौल शहर और जिले को खूब लूट कर उस पर अधिकार भी जमा लिया। लगातार सतनामीयों के विजय ने मुगलों के उस विश्वास,( तांत्रिक सतनामीयों का शरीर युद्ध के अस्त्र-शस्त्र के विरुद्ध अभेद हो गए हैं ) को पक्का कर दिया। इससे शाही सेना भी सतनामीयों से कई बार परास्त हो गई। विवश होकर औरंगज़ेब रद्ददाजखान के नेतृत्व में तोप खाने से सुसज्जित सेना भेजनी पड़ी। उन्होंने कागजों पर कुरान के कलमा पर आधारित जादू टोने के मंत्र लिख-कर सिपाहियों के झंडों में बांध दिया, ताकि वे शत्रु के जादू टोने से बच सकें। सतनामी बड़े साहसी थे और बड़े साहस से लड़े, परंतु परास्त हो गए2000 सतनामी युद्ध भूमि में काम आए और शेष ने आतंकित होकर आत्मसमर्पण कर दिया।
इन सभी बातों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि नारनौल, हरियाणा और मेवात में सतनामी थे, जिन्होंने मुगल बादशाह औरंगजेब से भयंकर युद्ध किया | अंत में पराजित हुए तथा कुछ युद्ध में मारे गए, कुछ ने आत्मसमर्पण किए हैं और शेष से चले गए| उस क्षेत्र में एक भी सतनामी नहीं बचा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह सिद्ध होता है कि नारनौल के सतनामी शांति प्रिय, अहिंसक सतनाम धर्म के पालन करने वाले थे। वे मानव विभाजन को नहीं मानते थे इसीलिए वे साधु होते हुए भी क्षत्रिय के कार्य को अपना लेते थे। वे शांति प्रिय होने के साथ-साथ अत्याचार को सहन करने वाले नहीं थे। अत्याचार को सहना पाप समझते थे। अतः वे उसके विरुद्ध युद्ध करके बलिदान भी दे सकते थे।
इन इतिहास के समस्त उदाहरणों में इतिहास लेखकों के मतों में विभिन्नता मेरे मन मस्तिष्क में अनेक शंकाओं को जन्म देता है।
जैसे
यह कि इतिहासकारों ने सतनामीयों को ब्राह्मण वर्ण, साधु संप्रदाय तथा मुंडिया जाती आदि शब्दों से संबोधित किया है। तो यहां पर प्रश्न उठता है नारनौल के सतनामी ब्राह्मण वर्ण के थे ? तो उनकी जाति ब्राह्मण होना चाहिये। वे सतनामी कैसे ? क्या सतनामी एक जाति का घोतक है ? यदि उत्तर नहीं , तो क्या सतनामी उसका धर्म का नाम था ? यदि पहले प्रश्न का उत्तर सतनामी जाति से है तो वह ब्राह्मण वर्ण के कैसे ? उन्हें साधु भी कहा गया, फिर वे गृहस्थ कैसे ? जिस इतिहासकार ने उन्हें शूद्र कहां है, उनके विचारों का क्या कहना? जब एक ही बात को भिन्न-भिन्न लेखक अलग-अलग बताएं तो वे तीनों सत्यता को छिपा रहे हैं। वास्तविकता यह है कि नारनौल, मेवात एवं हरियाणा के सतनामी सतनाम धर्म के मानने वाले थे, इसलिए वे सतनामी कहलाते थे। इनका नारा सतनाम था। इस तरह कत्लेआम के बाद की स्थिति के वर्णन में भी इतिहासकारों के मत विभिन्नता है। किसी ने लिखा है कि रात्रि का लाभ उठाकर सब के सब चले गए वहां एक भी सतनामी नहीं बचा |किसी ने लिखा है कि 2000 युद्ध में मारे गए, शेष ने आत्मसमर्पण कर दिए। यथा- भारतवर्ष के भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के अनुसार- “उस युद्ध के बाद कत्लेआम आदेश से नारनौल में एक भी सतनामी नहीं बचा,या तो शेष सब के सब भाग गए या सब के सब मार डाले गए।” उनके अनुसार नारनौल में अब एक भी सतनामी नहीं है। सभी इतिहासकार यह बताने में मौन है कि सब भागकर कहां गए ? शायद इसी प्रपंच से बचने के लिए कुछ इतिहासकार उनके आत्मसमर्पण की बात लिख दिए हैं ।
गुरु घासीदास के संबंध में लिखने वाले लेखकों ने अपने लेखों में तथा पंथी गायकों ने अपने पंथी भजन में लिखा है कि सतनामी नारनौल से औरंगजेब के कत्लेआम के आदेश के भय से भागकर छत्तीसगढ़ के जंगली भागों में जहां औरंगजेब का प्रभाव नहीं था, जा छिपे और अपने प्राणों की रक्षा की | डॉ. भगवान सिंह ठाकुर अपने छत्तीसगढ़ के इतिहास के पेज नंबर 8 में लिखा है कि “मुगल शासकों ने संपूर्ण भारतवर्ष पर अपना अधिकार जमा लिया था, किंतु छत्तीसगढ़ क्षेत्र अपने भौगोलिक स्थिति के कारण उनके प्रभाव से अछूता था।” इसीलिए नारनौल से भागे हुए सतनामी उत्तरी पूर्वी छत्तीसगढ़ के जंगलों में छिपकर अपनी प्राणों की रक्षा की।
डॉ राजेंद्र प्रसाद अपनी पुस्तक “ कबीर पंथ का उद्भव एवं प्रसार के पेज नंबर 78 में लिखा है कि वर्तमान समय में नारनौल शाखा का प्रचार समाप्त हो गया है।” दोनों कथनों में यह अनुमान लगाया जाता है कि नारनौल से बहुत संख्या में ( लाखों की संख्या में ) सतनामी छत्तीसगढ़ में बस गए | अतः वहां सतनामीयों की संख्या नहीं के बराबर है |
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी- “ उत्तर भारत के संत परंपरा के पेज नंबर 609 में लिखा है कि नारनौल के सतनामी लोग साधारण रहन-सहन, वर्ण वेद से रहित समाज, साहसी तथा मानवतावादी सिद्धांत के कट्टर थे।” यह कथन बड़े महत्व की है। गुरु घासीदास के छत्तीसगढ़ के सतनामीयों में , दिए गए सभी कथन अक्षरस परिलक्षित होता है। जैसे- गुरु घासीदास के प्रभाव में अनेक जाति के लोग आए और एक ही समाज में जुड़ गए और सतनामी कहलाए। सतनामी होते ही उनके पूर्व की संस्कृति, रिती रिवाज तथा जाति व संप्रदाय अपने आप समाप्त हो गए। नारनौल के सतनामीयों का नारा “सतनाम” उसी तरह से छत्तीसगढ़ के सतनामीयों का भी नारा “सतनाम गा” है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नारनौल से भागकर सतनामी छत्तीसगढ़ ही आए।
नारनौल और छत्तीसगढ़ के सतनामीयों में और भी समानता है-
नारनौल के सतनामी छत्तीसगढ़ के सतनामी
(1)रहन-सहन साधा था। रहन-सहन सादा है।
(2)श्वेत वस्त्र धारी, सफेद ध्वजा। इनका ध्वजा सफेद है।
(3)मानवतावादी थे। मानवतावादी है।
(4) एकेश्वरवाद को मानते थे। एकेश्वरवाद को मानते हैं।
(5) जाति पाति वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते थे। जाती पाती वर्ण व्यवस्था का
विरोध करते हैं।
(6) साहसी और कट्टर थे। साहसी और कट्टर है इसीलिए इन्हें
क्रिमिनल कॉम कहा गया है।
(7) अपने ऊपर अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते थे, अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का
यहां तक कि युद्ध भी कर लेते थे। सशक्त विरोध करते हैं,
कभी-कभी फौजदारी भी कर
बैठते हैं। इसीलिए जेलों में
इनकी संख्या अधिक है।
ऐसे अनेकों समान्यताएं यह सिद्ध करते हैं कि नारनौल से सतनामी छत्तीसगढ़ आए थे। उसी कुल में गुरु घासीदास का जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ था।
पंडित सुकुलदास गिलहरे जी-गुरु घासीदास की जीवनी में लिखा है कि- नारनौल से भागे हुए सतनामी छत्तीसगढ़ में आने के बाद अपने आप को रैदासी बताने लगे। शायद उन्हें डर था कि सतनामी बताने पर भी पकड़ लिए जाते और औरंगजेब के द्वारा उनकी कत्ल कर दी जाती उनके अनुसार मेदनीदास का पुत्र दुकुलदास हुआ।
इस नाम का रहस्य बताते हुए पंडित सुकुलदास ने लिखा है कि मेदनीदास् का पुत्र उनके छत्तीसगढ़ पहुंचने के बाद तथा छत्तीसगढ़ की कन्या के गर्भ में अवतरित हुआ तथा उसी समय में अपने को सतनामी ना बताकर रैदासी लिखा रहे थे। अर्थात कुल बदल रहे थे। इस घटना को याद रखने के लिए भी अपने नवजात शिशु का नाम दु + कुल +दास =दुकुलदास रखा। मेदिनी का विवाह सुकली ग्राम में हुआ तथा वही दुकुलदास का जन्म हुआ था(सन 1987 में कतिपय इतिहासकारों द्वारा अपनी पुस्तकों में सतनामीयों के लिए चैमार “शब्द लिखे जाने पर गुरु गोसाई श्री दयावंतदास तथा सतनामी समाज के प्रमुखों के नेतृत्व में भिलाई में रेल रोको आंदोलन किया गया था। उसी घटना के निराकरण हेतु सन 1987 ई. में ही भोपाल में श्री दुर्गा दास सूर्यवंशी कमेटी की स्थापना हुई थी जिसमें यह सिद्ध किया गया था कि सतनामी सिर्फ सतनामी है। उस कमेटी में छत्तीसगढ़ के अधीनस्थ सभी जिलों के राज्यपत्रों ( गैजेटियरो) तथा मुगलकालीन इतिहास के सभी पुस्तकों वैसे सतनामी के लिए प्रयुक्त अपशब्द हटा देने का निर्णय लिया गया था । उस कमेटी के सदस्यों को उक्त गैजेटियरो की मूल तथा सुधारे गए प्रतियों की फोटो कॉपियां दी गई थी)पंडित सखाराम बघेल ने भी अपने “गुरु घासीदास महापुराण” में सतनामीयों का नारनौल से भागकर छत्तीसगढ़ में आने की घटना का उल्लेख किया है।