expr:dir='data:blog.languageDirection' xmlns='http://www.w3.org/1999/xhtml' xmlns:b='http://www.google.com/2005/gml/b' xmlns:data='http://www.google.com/2005/gml/data' सतनामी इतिहास

Monday, December 30, 2019

                    कोटमां के सतनामी





 इस शाखा के सतनामीयों का जन्मदाता स्वामी जगजीवनदास थे। इनका जन्म 1682 ई. में उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में सरहदा नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री गंगा सिंह ठाकुर था।वे क्षत्रिय थे|  जगजीवन दास बचपन से ही संत प्रकृति का था तो उसका मन हमेशा सत्संग की ओर लगा रहता था। पढ़ने लिखने में बहुत तेज था | शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने बावरी पंथ में भोला साहेब( बुल्ला) और गोविंदा साहेब से दीक्षा ली। इससे उनकी जीवन धारा ही बदल गई। संत भोला साहेब के अनुसार वे जगजीवन के जीवन धारा को बदलने के लिए ही आए थे, क्योंकि पूर्व जन्म में स्वामी जी एक तपस्वी थे। उन्होंने जगजीवनदास को अपने पूर्व जन्म के अनुसार ही योगी होने की भविष्यवाणी की थी। कहां जाता है कि जब जगजीवन स्वामी ने उसकी भविष्यवाणी की निशानी मांगी तब भोला साहेब ने नीला तथा गोविंद साहब ने सफेद धागा निकाल कर एक दूसरे से मिलाकर जगजीवन दास जी के दाहिने हाथ की कलाई पर बांध दिया। उत्तर प्रदेश के  कोटमां शाखा के सतनामी जो जगजीवन दास जी के द्वारा दिक्षित है, आज भी अपने दाहिने हाथ की कलाई पर नीला और सफेद धागा बांधते हैं। इसे “अगदु” कहा जाता है। श्री अभिलाष दास( एक कबीर साहू) के अनुसार- कुछ लोग जगजीवनदास को काशी के एक विश्वेश्वपूरी नामक संत का शिष्य मानते हैं। धीरे-धीरे जगजीवन दास जी की कीर्ति फैलने लगी और दूर-दूर से लोग आकर उनके अनुयाई बनने लगे कुछ समय बाद स्वामी जी अपना घर छोड़कर गंगा पर बना कोटमां घाट में आकर रहने लगे। श्रद्धालु जन भी वहां जाकर बस गए।
       
                                           एक घटना के अनुसार जगजीवन स्वामी ने अपनी पुत्री का विवाह राजा गोंडा के पुत्र के साथ किया था। विवाह में राजा द्वारा  समीष भोजन करने से इनकार करने पर भट्टे का एक पौधा लगा दिया- जिसे लोगों ने मांस के स्थान पर ग्रहण किया। इस चमत्कार के आधार पर उनके अनुयाई यह विश्वास करते हैं कि निमिष भोजन को समीप में बदला जा सकता है। J.E.O.W brigks एवं सरकारी गैजेटियररो के अनुसार जगजीवन स्वामी की मृत्यु सन1761 ई .में हो गई। 

स्वामी जगजीवन दास जी सतनाम को ईश्वर के समान मानते थे। उनके अनुसार देव हि कार्य और कारण है। उन्होंने वेदों के देव कल्पना के अनुरूप ही देव कल्पना की थी। उनके अनुयाई मांस, मसूर की दाल, बैगन, शराब का सेवन वर्जित करते हैं। यह मूर्ति पूजा नहीं करते लेकिन हनुमान की पूजा करते हैं। यह अवतारवाद पर विश्वास करते एवं राम -कृष्ण को ईश्वर का अवतार मानते हैं। यह लोग हिंदू रीति रिवाज को मानते एवं उनके त्योहार आदि को मनाते हैं। जगजीवन स्वामी अपने अनुयायियों को निम्न उपदेश दिया है 

(1) मानव मानव एक है।
(2) कभी दूसरों पर निर्भर ना रहे।
(3) गुरुओं को सर्वोच्च आदर दे |
(4) गुरु के वचनों का पालन करें।
   
 दूसरों के प्रति आदर,  सहिष्णुता, दान, दया एवं जीवो के प्रति प्रेम आदि की मान्यता भी जगजीवन स्वामी के उपदेशों में है। कहा जाता है कि उनके एक प्रथा भी प्रचलित थी जिसे गायत्री प्रथा भी कहा जाता  था | जगजीवन स्वामी एक गृहस्थ साधक थे। निम्न जाति के अधिकांश लोग भी इनके महंत बन गए। 

श्री जगजीवन स्वामी ने हिंदी भाषा में अपनी रचनाएं लिखी है इ|नकी रचनाएं हैं-
(1) अथ निवास
(2) ज्ञान प्रकाश 
(3) महाप्रलय।
                           
         स्वामी जी के शिष्यों में  ईतन साहेब का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है बाराबंकी, फैजाबाद, बहराइच जिलों में इस शाखा का अच्छा प्रचार प्रसार हुआ था इस शाखा में जगजीवन के गद्दी का भी प्रचार है। जगजीवन स्वामी की मृत्यु सन 1761 इ.में कोहवा ग्राम में हुई। वहां उनका समाधि स्थल भी बना है। वह प्रतिवर्ष वैशाख एवं कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है।

  इस जानकारी पर मुझे इतना अवश्य कहना है कि -

(1)स्वामी जगजीवनदास क्षत्रिय थे फिर भी उनका शाखा का वर्णन J.E.O.W brigks  ने “दी चमार” मे क्यों कि ? अवश्य ही उन्हें किसी भारतीय ने गलत जानकारी दी होगी। वे एक विदेशी थे। उन्हें भारतीय जातियों का ज्ञान नहीं था। उन्हें भारत के किसी कट्टरवादी सांप्रदायिक व्यक्ति के कुप्रभाव में आकर उसके बताए अनुसार लिखनी चला दी
(2) जगजीवन स्वामी के  सतनाम में अधिकांश निम्न जाति के लोग ही दीक्षित हुए ऐसा क्यों ? यह खोज का विषय है।
(3) जगजीवन दास छत्रिय थे ,फिर उनके शिष्य सतनामी कैसे ? यह रहस्यमय प्रश्न है,जिनका उत्तर खोजा जाना चाहिए।  

                                                                                                                                                                                इससे सिद्ध होता है कि  स्वामी जी के सतनाम में विभिन्न जातियों के लोग शामिल हुए। उनके  सतनाम में शामिल होने वाले केवल सतनामी कहलाए | इस प्रकार में मानव विभाजन को आवश्यक समझकर उन्हें एकमात्र सतनामी बनाना चाहा| स्वामी जी ने सतनाम को ही मानव मात्र  का एकमात्र धर्म माना था, और वे इसी के माध्यम से मानव एकता स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने एकत्रित मानव समूह को सतनामी कहा था | 
                        

                          इतिहास के पन्नों में सतनामी
                                                                            

नारनौल के सतनामी - एक शोध के अनुसार सन 1543 मे वीरभान नामक एक संत ने नारनौल तथा उसके आसपास ( मेवात तथा हरियाणा )  मे सतनाम पंथ का प्रचार एवं प्रसार किया था। उन्होंने सतपोथी नामक एक ग्रंथ भी लिखा था। इनके इस पंथ में दीक्षित सतनामी मुंडिया कहलाते थे। वे श्वेत वस्त्रधारी, सतनाम के उपासक, शांति प्रिय , अहिंसक,  सत्यवादी, स्वाभिमानी साधु थे। उनका नारा सतनाम था। इनका श्वेत ध्वजा था । उनके सादगी, उच्च विचार एवं रहन सहन को देखते हुए कतिपय इतिहासकारों ने ब्राह्मण, साधु आदि नामों से संबोधित किए हैं। और कुछ लेखक सूदास के वंशज नहीं मानते हैं। उनका मत है कि  सूदास के वंशज मेवात के सतनामी कहलाते थे। कुछ लोग नारनौल के सतनामीयों का संस्थापक योगीदास को मानते हैं।
    
                                    इतिहास में  नारनौल में सतनामी  शब्द मुगल कालीन भारत के क्षितिज पर औरंगजेब के विरुद्ध  “सतनामी विद्रोह”के रूप में लिखा मिलता है। सन 1672 ई. में  औरंगजेब के विरुद्ध जाटों, तथा सतनामीयों का भयंकर विद्रोह हुआ था। इतिहास में लिखा है कि सतनामी तांत्रिक थे वे युद्ध में अपनी इस तंत्र विद्या का प्रयोग करते थे, जिसके प्रभाव से युद्ध में उनके शरीर पर तलवार,  भाले, तीर आदि का कोई असर नहीं होता था। यहां तक कि तोप के गोले भी उन्हें घायल नहीं कर सकते थे। इस अफवाह से शाही फौज घबराकर युद्ध से पहले ही भयभीत हो जाती थी। आमने-सामने होते ही शाही सिपाही घबराकर डर जाते और बड़े आसानी से परास्त तो हो जाते थे । सन 1672 ई. में  औरंगजेब के साथ इस शाखा के सतनामीयों का भयंकर युद्ध हुआ था । इसमें औरंगजेब की सेना का 3 बार हार हुई थी। जब औरंगजेब को अपनी सेना की हार का पता चला, तो उन्होंने अपनी सेना के मनोबल को बढ़ाने एवं उनके भय को दूर करने के लिए तथा कौमी कट्टरता को कायम करने हेतु अपने प्रत्येक सिपाही के झंडे में  कुरान कलाम व फातिहा लिखा । इतना ही नहीं वह स्वयं युद्ध का संचालन किया। इस भयावह युद्ध में सतनामी यों की हार हुई। कहा जाता है कि इस युद्ध में 20000 में मारे गए। इतिहास में लिखा हुआ है कि तीन बार के युद्ध में परास्त होने के बाद औरंगजेब को इतनी बौखलाहट थी की चौथी युद्ध को जीतते हि सतनामीयों के विरुद्ध कत्लेआम का आदेश जारी कर दिया । इतिहास साक्षी है कि कत्लेआम के आदेश के बाद रात्रि का लाभ उठाकर सतनामी जन उस क्षेत्र से पलायन कर गए और  उस क्षेत्र में एक भी सतनामी नहीं बचा । इतिहास की विडंबना यह है कि यह सतनामी पलायन करने के बाद कहां गए इसका वर्णन भी नहीं किया गया।

                                        इस घटना के संबंध में इतिहासकारों के निम्न मत है - 

ओम प्रकाश केला और प्रभाकर ठाकुर  लिखते हैं कि- भारत वर्ष के सरल इतिहास पेज नंबर 534 में वर्णन किया है- “सतनामीयों का विद्रोह” -  सतनाम से सतनामी शब्द बना है। इस संप्रदाय के लोग दिल्ली से दक्षिण पश्चिमी लगभग 75 मील की दूरी पर नारनौल एवं उसके आसपास रहते थे। एक मुगल सिपाही ने एक सतनामी को साधारण बात पर मार डाला। सतनामी पहले ही आक्रोशित थे।  इस घटना को लेकर सतनामीयों ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध में विद्रोह कर दिया। पास पड़ोस के जमीदार भी सतनामी यों से आ मिले। उन्होंने नारनौल के मुगल फौजदार को मार डाला। स्थिति भयानक हो गई। औरंगजेब ने स्वयं इस विद्रोह को शांत करने का भार अपने ऊपर लिया। सन 1672 ई.मे भीषण युद्ध के बाद सतनामी यों की पराजय हुई। औरंगजेब की कड़ाई से वे उस प्रदेश को छोड़कर  चले गए और उस क्षेत्र में एक भी सतनामी नहीं रहा।


(2)आर. एल. शर्मा के मुगल कालीन भारत पेज नंबर 188 के अनुसार “सतनामी यों का विद्रोह- दिल्ली से 75 मील दूर दक्षिण पश्चिम में नारनौल नामक स्थान पर सतनाम के कुछ  साधु उपासक रहते थे। यह खेती-बाड़ी का कार्य किया करते थे। एक मुगल पहरेदार ने 1 सतनामी को घायल कर दिया, इसलिए सतनामीयों ने उस पहरेदार को मार डाला। नारनौल के मुगल फौजदार ने अन्याय पूर्वक उस मुगल पहरेदार का पक्ष लेकर  सतनामीयों पर अत्याचार करना चाहा। बात बढ़ गई। सतनामीयों ने मुगल फौजदार पर आक्रमण करके उसका भी वध कर डाला और नारनौल के हुकूमत पर कब्जा करके भारत में मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, किंतु औरंगजेब ने विविध साधनों से इस विद्रोह का अंत कर दिया।”

(3)डॉ.आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव- “भारतवर्ष का इतिहास पेज नंबर 638 में सतनामी विद्रोह के संबंध में लिखते हैं कि औरंगजेब के शासनकाल का दूसरा भीषण विद्रोह नारनौल तथा मेवात के जिलों में सतनामी यों का विद्रोह था। सतनामी शांतिप्रिय धार्मिक लोग थे, जो एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे तथा खेती बाड़ी किया करते थे। वे अपने सिर,  चेहरा, भंव तक के बाल मुंडवाते थे, इसीलिए उन्हें मुंडिया कहते थे। एक सतनामी किसान और लगान वसूल करने वाले एक स्थानीय मुगल अधिकारी के बीच व्यक्तिगत झगड़े के कारण एक मुगल सैनिक के अनुचित व्यवहार से क्रोधित सतनामीयों ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने मुगल सेना पर अनेकों विजय प्राप्त किया एवं नारनौल शहर और जिले को खूब लूट कर उस पर अधिकार भी जमा लिया। लगातार सतनामीयों के विजय ने मुगलों के उस विश्वास,( तांत्रिक सतनामीयों का शरीर युद्ध के अस्त्र-शस्त्र के विरुद्ध अभेद हो गए हैं )  को पक्का कर दिया। इससे शाही सेना भी सतनामीयों से कई बार परास्त हो गई। विवश होकर औरंगज़ेब रद्ददाजखान के नेतृत्व में तोप खाने से सुसज्जित सेना भेजनी पड़ी। उन्होंने कागजों पर कुरान के कलमा पर आधारित जादू टोने के मंत्र लिख-कर सिपाहियों के झंडों में बांध दिया, ताकि वे शत्रु के जादू टोने से बच सकें। सतनामी बड़े साहसी थे और बड़े साहस से लड़े, परंतु परास्त हो गए2000 सतनामी युद्ध भूमि में काम आए और शेष ने आतंकित होकर आत्मसमर्पण कर दिया। 


                    इन  सभी बातों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि नारनौल, हरियाणा और मेवात में सतनामी थे, जिन्होंने मुगल बादशाह औरंगजेब से भयंकर युद्ध किया | अंत में पराजित हुए तथा कुछ युद्ध में मारे गए, कुछ ने आत्मसमर्पण किए हैं और शेष से चले गए| उस क्षेत्र में एक भी सतनामी नहीं बचा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह  सिद्ध होता है कि नारनौल के सतनामी शांति प्रिय, अहिंसक सतनाम धर्म के पालन करने वाले थे। वे मानव विभाजन को नहीं मानते थे इसीलिए वे साधु होते हुए भी क्षत्रिय के कार्य को अपना लेते थे। वे शांति प्रिय होने के साथ-साथ अत्याचार को सहन करने वाले नहीं थे। अत्याचार को सहना पाप समझते थे। अतः वे उसके विरुद्ध युद्ध  करके बलिदान भी दे सकते थे।

इन इतिहास के समस्त उदाहरणों में इतिहास लेखकों के मतों में विभिन्नता मेरे मन मस्तिष्क में अनेक  शंकाओं को जन्म देता है। 
  
  जैसे
 यह कि इतिहासकारों ने सतनामीयों को ब्राह्मण वर्ण, साधु संप्रदाय तथा मुंडिया जाती आदि शब्दों से संबोधित किया है। तो यहां पर प्रश्न उठता है  नारनौल के सतनामी ब्राह्मण वर्ण के थे ? तो उनकी जाति ब्राह्मण होना चाहिये। वे सतनामी कैसे ? क्या सतनामी एक जाति का घोतक है ? यदि उत्तर नहीं , तो क्या सतनामी उसका धर्म का नाम था ? यदि पहले प्रश्न का उत्तर सतनामी जाति से है तो वह ब्राह्मण वर्ण के कैसे ?  उन्हें साधु भी कहा गया, फिर वे गृहस्थ कैसे ? जिस इतिहासकार ने उन्हें शूद्र कहां है, उनके विचारों का क्या कहना? जब एक ही बात को भिन्न-भिन्न लेखक अलग-अलग बताएं तो वे तीनों सत्यता को छिपा रहे हैं। वास्तविकता यह है कि नारनौल, मेवात एवं हरियाणा के सतनामी सतनाम धर्म के मानने वाले थे, इसलिए वे सतनामी कहलाते थे। इनका नारा सतनाम था। इस तरह कत्लेआम के बाद की स्थिति के वर्णन में भी इतिहासकारों के मत विभिन्नता है। किसी ने लिखा है कि रात्रि का लाभ उठाकर सब के सब चले गए वहां एक भी सतनामी नहीं बचा |किसी ने लिखा है कि 2000 युद्ध में मारे गए, शेष ने आत्मसमर्पण कर दिए। यथा- भारतवर्ष के भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के अनुसार- “उस युद्ध के बाद कत्लेआम आदेश से नारनौल में एक भी सतनामी नहीं बचा,या तो शेष  सब के सब भाग गए या सब के सब मार डाले गए।” उनके अनुसार नारनौल में अब एक भी सतनामी नहीं है। सभी इतिहासकार यह बताने में मौन है कि सब भागकर कहां गए ? शायद इसी प्रपंच से बचने के लिए कुछ इतिहासकार उनके आत्मसमर्पण की बात लिख दिए हैं ।
                                                                                 
                                                          गुरु घासीदास के संबंध में लिखने वाले लेखकों ने अपने लेखों में तथा पंथी गायकों ने अपने पंथी भजन में लिखा है कि सतनामी नारनौल से औरंगजेब के कत्लेआम के आदेश के भय से भागकर छत्तीसगढ़ के जंगली भागों में जहां औरंगजेब का प्रभाव नहीं था,  जा छिपे और अपने प्राणों की रक्षा की | डॉ. भगवान सिंह ठाकुर अपने छत्तीसगढ़ के इतिहास के पेज नंबर 8 में लिखा है कि “मुगल शासकों ने संपूर्ण भारतवर्ष पर अपना अधिकार जमा लिया था, किंतु छत्तीसगढ़ क्षेत्र अपने भौगोलिक स्थिति के कारण उनके प्रभाव से अछूता था।” इसीलिए नारनौल से भागे हुए सतनामी उत्तरी पूर्वी छत्तीसगढ़ के जंगलों में छिपकर  अपनी प्राणों की रक्षा की। 
                                 
                                                            डॉ राजेंद्र प्रसाद अपनी पुस्तक “   कबीर पंथ का उद्भव एवं प्रसार के पेज नंबर 78 में लिखा है कि वर्तमान समय में नारनौल शाखा का प्रचार समाप्त हो गया है।”  दोनों कथनों में यह अनुमान लगाया जाता है कि नारनौल से बहुत संख्या में ( लाखों की संख्या में ) सतनामी छत्तीसगढ़ में बस गए | अतः वहां सतनामीयों की संख्या नहीं के बराबर है |

                                                              आचार्य परशुराम चतुर्वेदी- “ उत्तर भारत के संत परंपरा के  पेज नंबर 609 में लिखा है कि नारनौल के सतनामी लोग साधारण रहन-सहन, वर्ण वेद से रहित समाज, साहसी तथा मानवतावादी सिद्धांत के कट्टर थे।”  यह कथन बड़े महत्व की है। गुरु घासीदास के छत्तीसगढ़ के सतनामीयों में , दिए गए सभी कथन अक्षरस परिलक्षित होता है। जैसे- गुरु घासीदास के प्रभाव में अनेक जाति के लोग आए और एक ही समाज में जुड़ गए और  सतनामी कहलाए। सतनामी होते ही उनके पूर्व की संस्कृति, रिती रिवाज तथा जाति व संप्रदाय अपने आप समाप्त हो गए। नारनौल के सतनामीयों का नारा “सतनाम” उसी तरह से छत्तीसगढ़ के सतनामीयों का भी नारा “सतनाम गा” है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि  नारनौल से भागकर सतनामी छत्तीसगढ़ ही आए।  
           

                नारनौल और छत्तीसगढ़ के सतनामीयों में और भी समानता है-

 नारनौल के सतनामी                                                       छत्तीसगढ़ के सतनामी                

(1)रहन-सहन साधा था।                                                       रहन-सहन सादा है।

(2)श्वेत वस्त्र धारी, सफेद ध्वजा।                                             इनका ध्वजा सफेद है।

(3)मानवतावादी थे।                                                               मानवतावादी है।

(4)   एकेश्वरवाद को मानते थे।                                                एकेश्वरवाद को मानते हैं। 

(5) जाति पाति वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते थे।                         जाती पाती वर्ण व्यवस्था का 
                                                                                               विरोध करते हैं।

 (6)  साहसी और कट्टर थे।                                                    साहसी और कट्टर है इसीलिए इन्हें 
                                                                                              क्रिमिनल कॉम कहा गया है।

 (7) अपने ऊपर अत्याचार के विरोध में आवाज उठाते थे,            अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का    
          यहां तक कि युद्ध भी कर लेते थे।                                     सशक्त विरोध करते हैं,     
                                                                                              कभी-कभी फौजदारी भी कर                                      
                                                                                              बैठते हैं। इसीलिए जेलों में   
                                                                                                      इनकी संख्या अधिक है।  


 ऐसे अनेकों समान्यताएं  यह सिद्ध करते हैं कि नारनौल से सतनामी छत्तीसगढ़ आए थे। उसी कुल में गुरु घासीदास का जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ था। 
           
                                      पंडित सुकुलदास गिलहरे जी-गुरु घासीदास की जीवनी में लिखा है कि- नारनौल से भागे हुए सतनामी छत्तीसगढ़ में आने के बाद अपने आप को रैदासी बताने लगे। शायद उन्हें डर था कि सतनामी बताने पर भी पकड़ लिए जाते और औरंगजेब के द्वारा उनकी कत्ल कर दी जाती उनके अनुसार मेदनीदास का पुत्र  दुकुलदास हुआ।

                                         इस नाम का रहस्य बताते हुए पंडित सुकुलदास  ने लिखा है कि मेदनीदास् का पुत्र उनके छत्तीसगढ़ पहुंचने के बाद तथा छत्तीसगढ़ की कन्या के गर्भ में अवतरित हुआ तथा उसी समय में अपने को सतनामी ना बताकर रैदासी लिखा रहे थे। अर्थात  कुल बदल रहे थे। इस घटना को याद रखने के लिए भी अपने नवजात शिशु का नाम दु + कुल +दास =दुकुलदास रखा। मेदिनी का विवाह सुकली ग्राम में हुआ तथा वही दुकुलदास का जन्म हुआ था(सन 1987 में कतिपय इतिहासकारों द्वारा अपनी पुस्तकों में सतनामीयों के लिए चैमार “शब्द लिखे जाने पर गुरु गोसाई श्री दयावंतदास तथा सतनामी समाज के प्रमुखों के नेतृत्व में भिलाई में रेल रोको आंदोलन किया गया था। उसी घटना के निराकरण हेतु सन 1987 ई. में ही भोपाल में श्री दुर्गा दास सूर्यवंशी कमेटी की स्थापना हुई थी जिसमें यह सिद्ध किया गया था कि सतनामी सिर्फ सतनामी है। उस कमेटी में छत्तीसगढ़ के अधीनस्थ सभी जिलों के राज्यपत्रों ( गैजेटियरो) तथा मुगलकालीन इतिहास के सभी पुस्तकों वैसे सतनामी के लिए प्रयुक्त अपशब्द हटा देने का निर्णय लिया गया था । उस कमेटी के सदस्यों को उक्त गैजेटियरो की मूल तथा सुधारे गए प्रतियों की फोटो कॉपियां दी गई थी)पंडित सखाराम बघेल ने भी अपने “गुरु घासीदास महापुराण” में सतनामीयों का नारनौल से भागकर छत्तीसगढ़ में आने की घटना का उल्लेख किया है।

Saturday, December 28, 2019

           
                                                                                                                                                                      मैंने यह लेख मानव समाज के अंतर्गत संत शिरोमणि गुरु घासीदास बाबा की सतनाम धर्म के अनुयाई सतनामी समाज के प्रबुद्ध जनों के सोचने समझने,  निर्णय लेने के उद्देश्य से  लिख रहा हूं |

जो सतनामी होंगे और जिनकी रगों में सतनामी का लहू  दौड़ रहा होगा तथा सतनाम धर्म की राह पर चलने वाले बंदे होंगे तो उन्हें इस लेख में उल्लेखित तथ्यों पर गंभीरता से विचार करना  ही होगा |

भारतीय इतिहास के 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक  एक अभूतपूर्व प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व लेकर छत्तीसगढ़ के इस विशाल भूभाग में महामानव | महामानव युग पुरुष संत बाबा गुरु घासीदास अवतरित हुए वे अपने युग के सजग प्रहरी थे। अंधविश्वास ,  एवं संकीर्ण  मनोविज्ञान से भरी भूमि से समाज को ऊपर उठाने का आजीवन प्रयास किया। हिंदु   समाज के मनु वादियों और उनके आडंबरओ  पर निर्मम प्रहार किया। महाकौशल छत्तीसगढ़ की विशाल धरती पर गुरु घासीदास प्रथम व  एक-मेव मनीषी हैं, जिन्होंने मानव द्वारा बनाए गए तथाकथित जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था के उत्पीड़न के प्रति समाज को सजग बनाया। संत बाबा गुरु घासीदास ने सभी संप्रदायों में व्याप्त जड़ता  का घोर विरोध किया,  जो तर्क   मूलक था । और इन्हीं आडंबर प्रधान संप्रदायों के विरोध में ही  बाबा गुरु घासीदास ने सहज धर्म “ सतनाम धर्म ” को ही ससम्मान प्रतिष्ठापित किया।

एक अंग्रेज लेखक B.G brigs के अनुसार बाबा गुरु घासीदास का “सतनाम आंदोलन” सन 1820 से1830 के बीच इतना विकराल था कि इस आंदोलन में लाखों मानव समाज  प्रभावित होकर सतनाम धर्म  में शामिल हुए।कालांतर में यही मानव समूह सतनामी कहलाए और बाबा घासीदास बाबा “गुरु” घासीदास के रूप में प्रतिष्ठापित हुए।
 इस छत्तीसगढ़ के विशाल भूखंड की विडंबना यह रही है कि इतने बड़े युगपुरुष व मनीषी यहां अवतरित हुए,इतना बड़ा महान कार्य को प्रतिपादित किया, परंतु किसी लेखक, साहित्यकार अथवा  कवि  ने अपनी लेखनी नहीं चलाई, आश्चर्य की बात है, जबकि बाबा गुरु घासीदास के बाद पैदा होने साधारण,व्यक्तित्व वाले राजनीतिक अथवा सामान्य लोगों के विषय में बहुत कुछ कहा गया है तथा  उस पर  शोध का कार्य विश्वविद्यालयों में चल रहा है। जो व्यक्ति बाहर से आए अपने   प्रपंच भरे काम का राजनीतिक जाल बिछाया, उन्हें छत्तीसगढ़ की धरती पर महिमामंडित किया गया।यह बहुत ही दुख का विषय है । साहित्यकारों लेखकों एवं कवियों की लेखनी आज तक चुप रहने पर संदेह पैदा होता है- कि क्या बाबा गुरु घासीदास के अनवरीत चलने वाला विशाल “सतनाम आंदोलन” से विभिन्न संप्रदायों के मठाधीश,  पंडा पुजारियों को इतना भय  हो चुका था कि समस्त मानव समूह “सतनाम धर्म” में शामिल हो जाएंगे? और मठाधीश पुजारियों का प्रपंच समाप्त हो जाएगा।

24 जून सन1979 पंडरीतराई नामक गांव में सतनाम सेवा संघ कार्यालय के उद्घाटन के समारोह में कार्यक्रम का आयोजन किया गया था उस समय पंडित रवी शंकर शुक्ल विश्वविद्यालय  के तत्कालीन कुलपति विशेष अतिथि के तौर पर आए हुए थे । इस समारोह में सतनाम सेवा संघ के द्वारा मांग रखी गई कि बाबा गुरु घासीदास के सतनाम धर्म केशोध हेतु “शोध प्रकोष्ठ “ खोला जाए। इस मांग को तत्कालीन कुलपति द्वारा स्वीकारने  के पश्चात सतनाम धर्म पर  लिखने की स्पर्धा से आ गई ।

 परंतु आश्चर्य की बात यह है कि इतने बड़े सास्वत “सतनाम धर्म” के विषय में  लेखको ने नानी या दादी मां की कहानी की तरह बिना तथ्य के तथ्य हिन बातों का संकलन कर अपनी अपनी लेखों में  गुमराह भरे लेख लिखने लगे। गैर सतनामी लेखकों ने तो हद की सीमा पार कर गए। इन लेखकों ने गुरु घासीदास के जीवन, सतनाम धर्म के नियमों तथा सामाजिक इतिहास  मे  झूठी बातों को सम्मिलित करके दिशाहीन करने की कोशिश अपने पंडितपूर्ण वाक्य द्वारा किया गया  है। और जाहिर सी बात है यह गैर सतनामी थे इसी कारण इनके लेख  को बहुत प्रतिष्ठा मिला यहां तक कि इन्हीं के लेखों को आधार मानकर सरकारी राजपत्र में भी गलत कहानियों को स्थान दिया गया है । इतना ही नहीं अन्य समाज व जाति के परंपराओं को सतनामी समाज की परंपरा बनाने की चेष्टा की है। जैसे..
  1.  गुरु घासीदास वंशावली- गुरु घासीदास,  संघर्ष, समन्वय और सिद्धांत1756 से1850, ( डॉ.हीरालाल शुक्लमध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी भोपाल)।
  2.  सोहद्रा की आत्मकथा-( डॉ. श्याम सुंदर त्रिपाठी) पेज नंबर23-24।
  3.  गुरु घासीदास को संन्यास की प्रेरणा- लेखक डॉ .श्याम सुंदर त्रिपाठी पेज नंबर 19
  4.  एक ही गोत्र में विवाह- लेखक श्रीलाल शुक्ल पेज नंबर 203।                                                                                                                                                                                                                             यह  सभी लेख बातें या घटनाएं जो अलग-अलग पुस्तकों में लिखा गया है, ये सतनामी संस्कृति के सदा विपरीत है तथा इन्हें सतनामी समाज पर जबरन लादा गया है।ऐसे लेखकों कवियों और साहित्यकारों पर तरस आता है कि कहीं  ये नशे की हालत में तो नहीं  लिखे हैं                                                                                                                                                                                                                            आज जो सतनामीयों में  कुछ  जागृति आई है, इस और कुछ बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित हुआ, विशेषकर जब बिलासपुर में “गुरु घासीदास” विश्वविद्यालय की  स्थापना हुई। परंतु आश्चर्य का विषय यह है कि इस विश्वविद्यालय में गुरु घासीदास पर शोध खंड प्रकोष्ठ नहीं बनाया गया, नहीं किसी स्टूडेंट छात्र छात्राओं को बाबा गुरु घासीदास के सतनाम धर्म व संस्कृति पर शोध का कार्यभार सौंपा गया है।                                                                                                                                                                         हे साथियों हमें बाबाजी के सत मार्गों पर फुल बिछाना हमारा नैतिक कर्तव्य है। इसलिए आइए हम पशुता का त्याग कर कर मानवता को धारण कर सतनाम हित मे अपना  सार्थक कदम  बढ़ावे और गुरु जी के लोक मंगलकारी सत उपदेश को जन जन तक पहुंचाते हुए समाज में नव जागृति लाने के प्रयास में एक हो जाए | उच -नीच और स्वार्थ की भावना से परे एक ऐसा पंत बनाएं जो  सभ्य समाज का निर्माण करें जिसमें ज्ञान, शिक्षा, सद्भाव, समभाव एवं आपस में भाईचारे की भावनाओं का समावेश हो| 
    परम आदरणीय पाठकों एवं मेरे सतनामी भाइयों बहनों। मैंने इस लेख में सतनाम धर्म के अनुरूप अपने विचारों का उल्लेख किया है मेरे विचारों में कोई त्रुटि पाई जाती है तो मुझे अपना  मानकर क्षमा प्रदान करेंगे और साथ ही अपने विचारों को कमेंट के जरिए मुझ से अवगत भी करवाएंगे।

     मैं आगे इस कड़ी में सतनामी तथा सतनामीयों के इतिहास के बारे में रोचक लेख लिखने जा  रहा हूं| तो कृपया आप सभी से अनुरोध है कि अपना सहयोग दें और मेरे अगले पोस्ट का इंतजार करें| साहे..ब सतनाम !